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  बेवजह, बेसबब भी, कुछ होने की स्थिति को स्वीकारना आसान नहीं होता। अपनी खुदी की अवश्यमभाविता व सतत् उपयोगिता की बदगुमानी अवचेतन में इतने गहरे बसी है कि बेखुदी, बेसबब ही घबराहट पैदा कर देती है। यूं तो अपना वजूद ही दुनिया का सबसे व्यापक भ्रम माने जाने की हमारी विस्तृत परंपरा रही है, और अब विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है, फिर भी, मैं-बोध की असीम दुविधा के बावजूद भी, बेसबब व बेखुदी की आमदगी से हम सब असहज से रहते हैं। अमूमन, इसे फिलासफी या शेरो-शायरी करार दे कर, इसे यथार्थ से परे मान कर, तवज्जो नहीं देते।

  सबब, यानि वजह का अवैकल्पिक होना, या यूं कहें कि बेसबब को, स्वीकारना कठिन इसलिए भी है कि इंसानी दिमाग, जो हमारी चेतना का मूल मैकेनिज्म है, निश्चित तौर पर एक एक्शनेबल, यानि क्रिया-प्रधान व्यवस्था है। इंसानी चेतना मूलतः प्रतिक्रियावादी, रियैक्शिनरी है। इसलिए, जब किसी भी चीज की स्थिति बेसबब बन पड़ती है, तो हम सब के लिए उसकी स्वीकार्यता कठिन हो जाती है।

  इस किताब के लेखन में, जो भी भाव, चेतना व अभिव्यक्ति है, उसे बेसबब का दर्जा देने का कोई सबब या कारण जानबूझ कर नहीं किया गया है। वह सब यूं ही बेसबब ही हुआ है। ऐसा क्यूं? यही तो आपसे विनयपूर्वक गुजारिश है। जो बेसबब हो, उसका सबब ही क्या...!

  हां, चंद पलों के लिए ही सही, अगर चेतना व बोधत्व की पारंपरिक स्वीकार्यता से इतर कोई प्रज्ञता या प्रतीति आकार पा सके, तो फिर जो खूबसूरत सिलसिला निकल पड़ेगा, वही संभवतः इस किताब में दिख पड़े। हां, जो सबबी तौर पर दिखाने की कोशिश की गई है, वह है ‘स्त्री-भाव’ में लेखन...!

  कहते हैं, सिर्फ हम इंसानों को ही अच्छे वक्त का इंतजार नहीं रहता, बल्कि वक्त को भी अच्छे इंसानों का इंतजार रहता है जो भविष्य की जमीन पर अपनी चेतना-बोधत्व के बीज से, संभावनाओं की फसल उगा सकें। वैसे ही, शब्दों को भी अच्छे पाठकों का इंतजार रहता है। आप ही की राह तक रहे हैं यह चंद शब्द, यूं ही बेसबब...

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